Famous and popular Bhagavad Gita shloka quotes

जिसको निन्दा और स्तुति दोनों ही तुल्य है, जो मौनी है, जो किसी अल्प वस्तु से भी सन्तुष्ट है, जो अनिकेत है, वह स्थिर बुद्धि का भक्तिमान् पुरुष मुझे प्रिय है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है त्याग से तत्काल ही शान्ति मिलती है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत्-असत् भी मैं ही हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मुझमें ही चित्त को स्थिर करने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पित करने वाले भक्तजन, सदैव परस्पर मेरा बोध कराते हुए, मेरे ही विषय में कथन करते हुए सन्तुष्ट होते हैं और रमते हैं।

- श्रीमद्भगवद्गीता

बुद्धि, ज्ञान, मोह का अभाव, क्षमा, सत्य, दम, शम,सुख, दुख, जन्म और मृत्यु, भय और अभय।

- श्रीमद्भगवद्गीता

जो पुरुष आकांक्षा से रहित, बाहर-भीतर से शुद्ध , चतुर, पक्षपात से रहित और दुःखों से छूटा हुआ है- वह सब आरम्भों का त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मैं अक्षरों में अकार हूँ और समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ। अक्षयकाल अर्थात् काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, विराट्स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पापरहित मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।

- श्रीमद्भगवद्गीता

प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सबका वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गर्मी और सुख-दुःखादि द्वंद्वों में सम है और आसक्ति से रहित है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

हे अर्जुन! उन मुझमें चित्त लगाने वाले प्रेमी भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्यु रूप संसार-समुद्र से उद्धार करने वाला होता हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

सहस्रों मनुष्यों में कोई ही मनुष्य पूर्णत्व की सिद्धि के लिए प्रयत्न करता है और उन प्रयत्नशील साधकों में भी कोई ही पुरुष मुझे तत्त्व से जानता है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

अपनी योगमाया से आवृत्त मैं सबको प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ। यह मोहित लोक (मनुष्य) मुझ जन्मरहित अविनाशी को नहीं जानता है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

वह अन्तकाल में योगबल से प्राण को भ्रकुटि के मध्य सम्यक् प्रकार स्थापन करके निश्चल मन से भक्ति युक्त होकर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

जो मुझको अजन्मा अर्थात् वास्तव में जन्मरहित, अनादि और लोकों का महान् ईश्वर तत्त्व से जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान् पुरुष संपूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

जो-जो सकाम भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उस-उस भक्त की श्रद्धा को मैं उसी देवता के प्रति स्थिर करता हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरंतर चिंतन करते हुए निष्कामभाव से भजते हैं, उन नित्य-निरंतर मेरा चिंतन करने वाले पुरुषों का योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

हे पार्थ सम्पूर्ण भूतों का सनातन बीज मुझे ही जानो मैं बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

उन निरंतर मेरे ध्यान आदि में लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।

- श्रीमद्भगवद्गीता

और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मैं दमन करने वालों का दंड अर्थात् दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छावालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करने के लिए उनके अंतःकरण में स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अंधकार को प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मेरी उत्पत्ति को अर्थात् लीला से प्रकट होने को न देवता लोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकार से देवताओं का और महर्षियों का भी आदिकारण हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मैं वासुदेव ही संपूर्ण जगत् की उत्पत्ति का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत् चेष्टा करता है, इस प्रकार समझकर श्रद्धा और भक्ति से युक्त बुद्धिमान् भक्तजन मुझ परमेश्वर को ही निरंतर भजते हैं।

- श्रीमद्भगवद्गीता

जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव तथा अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं वे युक्तचित्त वाले पुरुष अन्तकाल में भी मुझे जानते हैं।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों का समय हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

हे अर्जुन! तू ऐसा समझ कि सम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से ही उत्पन्न होने वाले हैं और मैं सम्पूर्ण जगत का प्रभव तथा प्रलय हूँ अर्थात् सम्पूर्ण जगत का मूल कारण हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ, न कोई मेरा अप्रिय है और न प्रिय है, परंतु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

हे अर्जुन पूर्व में व्यतीत हुए और वर्तमान में स्थित तथा भविष्य में होने वाले भूतमात्र को मैं जानता हूँ परन्तु मुझे कोई भी पुरुष नहीं जानता हैं।

- श्रीमद्भगवद्गीता

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें सम्पूर्ण चराचर जगत्को रचती है। हे कुन्तीनन्दन इसी हेतुसे जगत्का विविध प्रकारसे परिवर्तन होता है।

- श्रीमद्भगवद्गीता

हे अर्जुन ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं। परन्तु हे कौन्तेय मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता।

- श्रीमद्भगवद्गीता

हे अर्जुन! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता

जो मेरे शरण होकर जरा और मरण से छूटने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को, सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।

- श्रीमद्भगवद्गीता

पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति मुझको जान। हे पार्थ! मैं सेनापतियों में स्कंद और जलाशयों में समुद्र हूँ।

- श्रीमद्भगवद्गीता